कहीं कुछ खो गया है (कविता)

कहीं कुछ खो गया है
ऐसा जो कभी नहीं था, कहीं नहीं था

हर चीज़ एक खोखले अट्टहास में गूँजती हुई...
अनिद्रित, आशंकाग्रस्त...। सन्न सन्न
हवा चलती है। सब-कुछ जहाँ का तहाँ, जैसा का तैसा—
रूप, रंग, अवस्थाएँ...। पृथ्वी पूर्ववत् व्यवस्थित—असहाय।
लेकिन कहीं कुछ खो गया है ज़रूर
और यह महसूस करना, स्वयं
उपहसित होना है।

नींद में अचल एक मकान, एक नदी, एक नगर—
कहीं सुबह, कहीं साँझ, कहीं रात,
एक ही क्षण के अंतराल में
अनेक छायाएँ... सब
कहीं खोई हैं।
एक मचान पर बैठी सहानुभूति
चिड़ियों के झुंड उड़ाती है—
अर्थहीन प्रारंभ के पूर्व ही विलीन होती एक चीख़...
और यह सब महसूस करना, स्वयं
उपहसित होना है।

सृजन : जैसे मासूम चेहरे पर
चमड़े के गोल-गोल लट्टू उग आएँ।
मरे हुए इकलौते शिशु की अनंत खिलखिलाहटों की झाँझ...
पिघलते हुए लोहे की बारिश का स्वर, या अंतरिक्ष पार
एक अजनबी धूप के बहने का शोर।

कथित, अकथित :—घुले हुए, रंगहीन रंग
सूनेपन को पुकारती सूनेपन की आवाज़।
घाटी, पर्वत या गुफा या मज़ार
धधकती आग और आदमी को फ़तह करती
वही-वही आदिम प्यास...

हाय रे! तू... आदमज़ाद!
ये तेरे मन में कैसी-कैसी व्यथाएँ हैं!
और यह सब महसूस करना, स्वयं
उपहसित होना है।


रचनाकार : दूधनाथ सिंह
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