कब तक? (लघुकथा)

तुम रो रहे हो कुशाग्र! पर किसलिए? अकेले यूँ रोना अच्छा नहीं, यह करके तुम मेरे साथ भी धोखा कर रहे हो। कुशाग्र कुन्दन को आश्चर्य भरी नज़र से देखता हुआ उसकी बातें सुनता है। तुम तो शायद मित्र कहते हो, मित्र तो उसे जानिए श्रीमान जो मित्र के मन के हर कोने से परिचित हो, कुन्दन के तानों का बाण एक बार में ही कुशाग्र के व्यथा वृतांत को उजागर करने में सफल हो जाता है। कुशाग्र अपनी माँ के नासाज़ सेहत को लेकर अत्यधिक विचलित हो रहा था। वह अपने माँ के बिना जीवित नहीं रह पाएगा, ऐसी सारी भावना कुन्दन के समक्ष प्रकट कर देता है। कुन्दन सहसा गंभीर होकर पुनः वातावरण में हल्कापन लाने का प्रयास करने लगता है। अरे पगलू! इतने अच्छे अंक उपनिषद और वैदिक साहित्य में नाहक मिले हैं तुम्हें। सुनो! ज्ञान की दृष्टि से संसार को देखोगे तो सुख ही सुख मिलेगा और यदि भ्रम में पड़ोगे तो विनाश को प्राप्त होंगे। प्यारे! तुम जानते हो, माँ-पिता सदैव साथ नहीं रह सकते, तुम स्वयं भी नहीं रहोगे। तो उपाय करो कि तुम और तुम्हारे माता-पिता पुनरपि जन्मं पुनरपि मरणं के चक्र से सदा-सदा के लिए मुक्त हो‌। रोने से अपने ज्ञान के वैभव की शिथिलता मत दिखाओ।
जन्म-मरण, विरह-मिलन, मान-अपमान, सुख-दुःख इस संसार नाम के खेत की उपज है। तुम्हारा ज्ञान तुम्हें कदापि अधिकार नहीं देता की ऐसी अवस्था में बैठो; वरन् अभ्यास करो ब्रह्मतत्त्व की। पुत्र का धर्म है माता-पिता के इहलोक और परलोक को सँवारना तो फिर देर क्या है? यह पीड़ा सुनाकर मुर्खो की सहानुभूति कब तक कमा पाओगे? सम्हालो स्वयं को! कुन्दन को एक ही अवस्था में निश्चल बैठे कुशाग्र ने सुनकर ज्ञानानन्द में जोर जोर से हरि कीर्तन करते कुन्दन संग नाच उठा।
माझा विठ्ठल विठ्ठल विठ्ठला
माझा विठ्ठल पांडुरंगा...


लेखन तिथि : 2024
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