काश! मेरा हृदय पाषाण खंड होता,
तोड़ देता वो सारी बेड़ियाँ;
जो मिथ्या प्रेम का दामन पकड़,
झकझोड़ती हैं मासूम हृदयों को।
मीठी बातों की चाशनी में,
पागती हैं नित,
तत्पश्चात
डाल देती प्रचंड धूप की कड़ाही में;
जिसमें झुलस,
विदित होता उसे प्रेम का वास्तविक रूप।
जिसे बड़े यत्नपूर्वक नेह के जल से सींचा था।
और
देख रहा था स्वप्न,
वट वृक्ष सी छाया का; शीतलता का।
प्रेम प्रस्ताव के प्रथम दिवस से,
अपनी आँखों में...

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