एक यह गोली है
जो शासन की बंदूक से
निहत्थे को
छलनी कर देती है
कितना फ़र्क़ है
है ना बचपन और सयाने में
काश कि बचपना होता सयाने में!
कि जैसे खेल रहे थे गोली
गाँवों में!
एक कवि की अल्हड़ता है
बचपना, गाँव, नगर, नागरी
की सरसता है
यह गाँव की कौड़ी है
दिल्ली की दंडी नहीं।
साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है।
आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।