काल,
तुझसे होड़ है मेरी ׃ अपराजित तू—
तुझमें अपराजित मैं वास करूँ।
इसीलिए तेरे हृदय में समा रहा हूँ
सीधा तीर-सा, जो रुका हुआ लगता हो—
कि जैसा ध्रुव नक्षत्र भी न लगे,
एक एकनिष्ठ, स्थिर, कालोपरि
भाव, भावोपरि
सुख, आनंदोपरि
सत्य, सत्यासत्योपरि
मैं—तेरे भी, ओ ‘काल’ ऊपर!
सौंदर्य यही तो है, जो तू नहीं है, ओ काल!
जो मैं हूँ—
मैं कि जिसमें सब कुछ है...
क्रांतियाँ, कम्यून,
कम्युनिस्ट समाज के
नाना कला विज्ञान और दर्शन के
जीवंत वैभव से समन्वित
व्यक्ति मैं।
मैं, जो वह हरेक हूँ
जो, तुझसे, ओ काल, परे है।
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