साहित्य रचना : साहित्य का समृद्ध कोष
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कानपुर, उत्तर प्रदेश
1944
जिस सिम्त नज़र जाए, वो मुझको नज़र आए, हसरत है कि अब यूँ ही, ये उम्र गुज़र जाए। आसार हैं बारिश के, तूफ़ाँ का अंदेशा है, मौसम का तक़ाज़ा है, अब कोई न घर जाए। तामीरो-तरक़्क़ी का, ये दौर तो है लेकिन, ये सोच के डरता हूँ, एहसास न मर जाए। हो जिसका जो हक़ ले-ले, गुलशन में बहारों से, ये मौसमे-गुल यारो, कल जाने किधर जाए?
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