जेठ का एक दिन (कविता)

मेरा गला सूख गया है
पसीने से भर गई है—देह

उमस उगल रही है धरती
साँस में
लपटें समा जाती हैं हर बार
मुझे ज़ोरों से लगी है प्यास

पेड़ की जड़ों में होगा जल
कुएँ की तलों में
कौन...
कौन देगा मुझे एक घूँट पानी

मेरे पास कोई स्रोत नहीं है
रेत के
किस खोलक में छुप
बचा लूँ यह जीवन तरबूज़-सा

देहरी के जौ
मिट्टी के घड़े के नीचे अँकुरते हैं
गाय का दूध खूँटे के बल कूदते हैं बछड़े
तुम्हीं कहो
कहो मेरे मालिक
कहाँ हैं मेरे जीवन की जड़ें
मेरे हिस्से की नमी।


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