जैसे तुझे स्वीकार हो (कविता)

जैसे तुझे स्वीकार हो।

डोलती डाली, प्रकंपित पात, पाटल-स्तंभ विलुलित,
खिल गया है सुमन मृदु-दल, बिखरते किंजल्क प्रमुदित,

स्नात मधु से अंग, रंजित-राग केशर-अंजली से स्तब्ध-सौरभ है निवेदित :
मलय मारुत, और अब जैसे तुझे स्वीकार हो।

पंख कंपन-शिथिल, ग्रीवा उठी, डगमग पैर, तन्मय दीठ अपलक,
कौन ऋतु है, राशि क्या, है कौन-सा नक्षत्र, गत-शंका, द्विधा-हत बिंदु अथवा वज्र हो—
चंचु खोले, आत्म-विस्मृत हो गया है यती चातक :
स्वाति, नीरद, नील-द्युति, जैसे तुझे स्वीकार हो।

अभ्र लख भ्रू-चाप-सा, नीचे प्रतीक्षा में स्तिमित नि:शब्द
धरा पाँवर-सी बिछी है, वक्ष उद्वेलित हुआ है स्तब्ध,
चरण की हो चाप किंवा छाप तेरे तरल चुंबन की :
महाबल, हे इंद्र, अब जैसे तुझे स्वीकार हो।

मैं खड़ा खोले हृदय के सभी ममता-द्वार,
नमित मेरा भाल : आत्मा नमित-तर है नमित-तम मम भावना-संसार,
फूट निकला है न-जाने कौन हृत्तल वेधता-सा निवेदन का अतुल पारावार,
अभर-वर हो, वरद-कर हो, तिरस्कारी वर्जना, हो प्यार :
तुझे प्राणाधार, जैसे हो तुझे स्वीकार—
सखे, चिन्मय देवता, जैसे तुझे स्वीकार हो!


रचनाकार : अज्ञेय
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