भाग जागते हैं कर्म-रत कीर्ति-भाजनों के,
भव में अभागे आलसी हैं भीख माँगते।
खोल-खोल थके, पर आँख खुलती है नहीं,
सर्वदा सजग रहने से वे हैं भागते।
भोर पर भोर हो रहे हैं, तो भले ही होवें,
युवक हमारे निंद्य नहीं त्यागते।
युग बीत गए, जाति खड़ी मुँह जोहती है,
कब के जगे हैं, जो जगाए नहीं जागते।
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