जाना (कविता)

वह चला गया
दुःखी और उदास-सा
बिना मेरी तरफ़ देखे-मुस्कुराएँ
वह दबे पाँव चला गया
आ रही है पानी की आवाज़
स्नान-घर से अनवरत
उसके कमरे का दरवाज़ा खुला है
रात का खाना मेज़ पर रखा है
बिस्तर बेतरतीब हैं

वह रात-भर पड़ा रहा पलंग पर
बिना बल्ब जलाए, पंखा चलाए
हथेलियों में अपना मुँह छुपाए

कहीं कोई हलचल नहीं है
आज क्या हो गया ऐसा
कल बिल्कुल नहीं था जैसा

मुझे इस बात का दु:ख है
आज एक लड़की पहली बार आने वाली थी
उससे मिलने और उसका घर देखने
जिसे वह बहुत प्रेम करता है


रचनाकार : विजय राही
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