इससे बेहतर तो यही होगा कि पत्थर से कहो,
प्यास की बात कभी भी न संमदर से कहो!
किसने छीना है वजूद उसका, बनाया बंजर,
जानना है तो यही प्रश्न सरोवर से कहो!
ख़ुदकुशी से तो ज़रा भी न वो कमतर होगी,
ओस की बात अगर धूप की चादर से कहो!
प्यार से बढ़के तो होता भी नहीं है पैसा,
आओ यह बात चलो ज़ोर से घर-घर से कहो!
उन ग़रीबों से उन्हें कुछ भी न मिलने वाला,
छोड़कर जाएँ चले दुख से दलिद्दर से कहो!
मुँह की बातों का असर हो ही ज़रूरी तो नहीं,
बात कहनी है अगर सच में तो भीतर से कहो!
साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।
सहयोग कीजिएरचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें