इन शब्दों में कोई छाया नहीं है
कभी थी—रही होगी
अब तो महज़ ठंडे काले अक्षर हैं
जो कोई मर्ज़ी भी नहीं बताते
इन शब्दों में कभी जब मैंने बैल
लिखा था तो सोचता था—यह
बैल नहीं है
अब लगता है बैल ही था
इन शब्दों में कुछ सच बोला करता था
उनमें कुछ इस प्रकार के सच भी थे कि
उन्हें बोलने के बजाय अपने
बाल नोचना ज़्यादा मुनासिब होता
सूरज चमकता है—इस आशय के
लिखे शब्द कब के बुझ चुके हैं
पहाड़ों जितनी आयु नहीं थी शब्दों की
बहुत-से तो मोज़ों से चप्पलों से भी कम चले
मैं सोचता था उन्हें बोल देना अकेला रास्ता है
और मैं बोल सकता था।

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