इक सुब्ह है जो हुई नहीं है (ग़ज़ल)

इक सुब्ह है जो हुई नहीं है,
इक रात है जो कटी नहीं है।

मक़्तूलों का क़हत पड़ न जाए,
क़ातिल की कहीं कमी नहीं है।

वीरानों से आ रही है आवाज़,
तख़्लीक़-ए-जुनूँ रुकी नहीं है।

है और ही कारोबार-ए-मस्ती,
जी लेना तो ज़िंदगी नहीं है।

साक़ी से जो जाम ले न बढ़ कर,
वो तिश्नगी तिश्नगी नहीं है।

आशिक़-कुशी ओ फ़रेब-कारी,
ये शेवा-ए-दिलबरी नहीं है।

भूखों की निगाह में है बिजली,
ये बर्क़ अभी गिरी नहीं है।

दिल में जो जलाई थी किसी ने,
वो शम-ए-तरब बुझी नहीं है।

इक धूप सी है जो ज़ेर-ए-मिज़्गाँ,
वो आँख अभी उठी नहीं है।

हैं काम बहुत अभी कि दुनिया,
शाइस्ता-ए-आदमी नहीं है।

हर रंग के आ चुके हैं फ़िरऔन,
लेकिन ये जबीं झुकी नहीं है।


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