हम पेड़ को कुछ भी कह सकते हैं (कविता)

यह पेड़ मेरी कोशिश नहीं है
इसके भीतर से उभरती कुर्सी
तहज़ीब की आँखें हैं
और मेरा कुर्सी से उठकर इस पेड़ के बारे में फ़तवा देना
एक पेशा है
पेड़ है, इसकी डगालें भी हैं
डगालों से उभरती पत्तियाँ हैं, फूल हैं
और पेड़ का अपना शामियाना है
छाँव है
छाँव में हम-तुम बैठते हैं
और हमारी कोशिश
हमारे ऊपर का पेड़ हो जाती है
आसमान पता नहीं किस आसमानी कोशिश से
हम पर कभी-कभी ज़ुल्म करता है
ज़ुल्मी आसमान के मुक़ाबले
पेड़ हमारी कामयाबी हो जाता है

और लोगों को उनकी कुर्सियों में छोड़कर
हम पेड़ को कुछ भी कह सकते हैं
दरख़्त या झाड़ या वृक्ष।


रचनाकार : सुदीप बनर्जी
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