हम अपने दुख को गाने लग गए हैं (ग़ज़ल)

हम अपने दुख को गाने लग गए हैं,
मगर इस में ज़माने लग गए हैं।

किसी की तर्बियत का है करिश्मा,
ये आँसू मुस्कुराने लग गए हैं।

कहानी रुख़ बदलना चाहती है,
नए किरदार आने लग गए हैं।

ये हासिल है मिरी ख़ामोशियों का,
कि पत्थर आज़माने लग गए हैं।

ये मुमकिन है किसी दिन तुम भी आओ,
परिंदे आने जाने लग गए हैं।

जिन्हें हम मंज़िलों तक ले के आए,
वही रस्ता बताने लग गए हैं।

शराफ़त रंग दिखलाती है 'दानिश',
कई दुश्मन ठिकाने लग गए हैं।


यह पृष्ठ 350 बार देखा गया है
×

अगली रचना

ये माना उस तरफ़ रस्ता न जाए


पिछली रचना

दे सको तो ज़िंदगानी दो मुझे
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें