होम करते हाँथ जलते (ग़ज़ल)

होम करते हाँथ जलते,
चाँद उगता सूर्य ढलते।

वे अदब से बोलते हैं,
पर हमें शादाब खलते।

ठूँठ सा इक वृक्ष है पर,
फल वहाँ पर ख़ाक फलते।

चाँदनी फैली जहाँ में,
जेठ से संभाग जलते।

दोस्त भी हैं यार भी हैं,
मूँग छाती पर न दलते।


लेखन तिथि : 8 अक्टूबर, 2019
यह पृष्ठ 262 बार देखा गया है
अरकान : फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन
तक़ती : 2122 2122
×

अगली रचना

सुहाना है सफ़र अब तो


पिछली रचना

समय की किसी से सगाई नहीं है
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें