होली (कविता)

सद्भावों की माला होली,
ख़ुशियों की है खाला होली।
रंग बसे हैं रग-रग इसकी,
रंगों की है बाला होली॥

मन के शिकवे दूर करे यह,
मस्ती में फिर चूर करे यह।
छोड़ बगल में दुविधा सारी
सबकी पीड़ा दूर करे यह॥

नीरस जीवन में बल भरती,
उर की पीड़ा का हल करती।
मन की सूखी धरती में यह,
कोमल ख़ुशियों का जल भरती॥

आओ मिलकर खेलें होली,
रंगों की कर लेकर टोली।
जीवन से ग़म दूर भगाएँ,
बाँटे ख़ुशियाँ भरकर झोली॥

रंगों से कुछ ऐसे खेलें,
जीवन के हों दूर झमेलें।
तन भी भीगे मन भी भीगे,
अनबन ठोकर देकर ठेलें॥

होली को कब उसने जाना,
रंगा लहु से जिसका दाना।
तन ही भीगा तो क्या भीगा,
चित्त हुआ न गर दीवाना॥


लेखन तिथि : 25 मार्च, 2024
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ऋतुराज बसंत


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