हो कर बूँद (कविता)

हो कर बूँद,
प्यास धरा की जान सका।

क्यों कोयल गाती फिरती है,
क्यों रंग उसका काला है।
पिय की पुकार रहे सदा,
रंग विरह की हाला है।
हो कर बूँद,
आँसू की क़ीमत जान सका।

क्यों कलरव चिड़िया करती है,
क्यों शाखा बूढ़े बरगद की,
इस धरती को छूती है।
यह गुंजन पिय का स्वागत सा,
झुकना भी पिय की स्तुति है।
हो कर बूँद,
चातक की निष्ठा जान सका।

क्यों अधरों पर मुस्कान रही,
क्यों फूटे छालों का भान नहीं।
पिया मिलन की बेला में,
सुनने को कान नहीं।
हो कर बूँद,
सीपी के कष्टों को जान सका।


लेखन तिथि : 6 अगस्त, 2023
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