जड़ता के पट टूट गिरें,
अब चमक उठा मन द्वार हो,
जब से मन में दीप बने है,
हिन्दी कवियों के काव्य हो।
कौन जरा, क्या व्याधि,
क्यों तमस तहलका पसरा है?
तुम भी हिंदी प्राण-शृंगार करो
कई का बिखरा जीवन सँवरा है।
मैं भोर सजाती हूँ भक्ति से
शुरू अन्य पहर का द्वार सखे!
तुलसी, छीत, कुंभन, जायसी
नानक के गाती छंद सधे।
मध्याह्न पूर्व मैं आदि-रीति,
से सज धज बाहर जाती हूँ।
रासो काव्य और भूषण पथ
पर इच्छित जीत पाती हूँ।
रहीम, वृंद, गिरिधर की नीति
से यश का चरित्र कमाती हूँ।
सायं जब थक लोक-जगत को
विस्मयताधीन पाती हूँ,
तब अद्य मीरा, प्रसाद, पंत और
निराला की सांत्वना पाती हूँ।
प्रदोष पहर की शांत भूमिका,
कहती है रसखान-मीरा बन जा,
गिरिधर तेरा, तू उसकी
बस उसकी ही उसमें खो जा।
मेरे तो गिरिधर गोपाल...
बस रटन लगाते सोती हूँ।
ऐसे ही भोर जागते प्रदोष बीतते
हिंदी ही खाती-पीती जीती हूँ।

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।
सहयोग कीजिएप्रबंधन 1I.T. एवं Ond TechSol द्वारा
रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें
