हे मेरी तुम! (कविता)

हे मेरी तुम!
आज धूप जैसे ही आई
और दुपट्टा
उसने मेरी छत पर रक्खा
मैंने समझा तुम आई हो
दौड़ा मैं तुमसे मिलने को
लेकिन मैंने तुम्हें न देखा
बार-बार आँखों से खोजा
वही दुपट्टा मैंने देखा
अपनी छत के ऊपर रक्खा।

मैं हताश हूँ,
पत्र भेजता हूँ, तुम उत्तर जल्दी देना :
बतलाओ क्यों तुम आई थीं मुझसे मिलने
आज सबेरे,
और दुपट्टा; रख कर अपना
चली गई हो बिना मिले ही?
क्यों?
आख़िर इसका क्या कारण?


यह पृष्ठ 330 बार देखा गया है
×

अगली रचना

मैं हूँ


पिछली रचना

इसी जन्म में इस जीवन में
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें