हर कविता के बाद–
कवि की
हत्या होती है।
हज़ार मरण वह मरता है;
और उसे सहर्ष स्वीकार करना पड़ता है।
उसकी आत्मा हर अंतर्द्वंद्व के बाद–
प्रायश्चित करती हैं,
अपने कर्मफल का।
हर जिजीविषा का अंतिम कतरा,
अंततोगत्वा–
वहीं शांत होता है,
जहाँ ज़िंदगी पूर्ण विराम लेती है।
पर एक कसक!
रह जाती है,
उसकी खुली ऑंखों में।
जो आत्मदाह कर
शांत करती है अपनी जिजीविषा।
सूनी और बंजर भूमि पर,
हर साहचर्य के बाद–
अंकुरण होता है;
नई पौध के रूप में।
एक तीव्र लालसा का,
शून्य पिपासा को जन्म देती है।
और वह चिर प्रतीक्षित प्यास की अभिव्यक्ति,
सदा बनी रहती है,
अधूरी, अतृप्त, अमिट।
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