हाँ मैं मज़दूर हूँ (कविता)

रहता अधिकतर अपने परिवार से दूर हूँ,
चिंता रहती घर के ख़र्चे की हाँ मैं मज़दूर हूँ।

करता जी-हुज़ूरी मालिक की मेरा काम चलता है,
मेरी मज़दूरी से ही ख़र्च सुबह-शाम चलता है।

मिले हर रोज़ काम मुझे आराम नहीं,
चिंता सताती मुझे गर मिलता काम नहीं।

परिवार के भरणपोषण के लिए मुझे काम चाहिए,
न कोई इच्छा बस दाल-रोटी सुबह-शाम चाहिए।

गर्मी की तपिश, सर्दी की ठिठुरन मुझे हरा नहीं पाती,
न रहें बच्चे भूखे ये घनघोर बारिश भी डरा नहीं पाती।

हाँ सुबह से शाम तक काम से मैं हो जाता चूर-चूर हूँ,
फिर भी चाहता हूँ हर रोज़ काम हाँ मैं मज़दूर हूँ।

मेरी मज़दूरी ही मेरे जीवन का सार है,
इसी से चलता परिवार जो मेरा संसार है।


लेखन तिथि : 21 मई, 2021
यह पृष्ठ 225 बार देखा गया है
×

अगली रचना

काश! ऐसा कोई जतन हो जाए


पिछली रचना

आया जन्मदिन बाबा भीम का
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें