ग्रंथि (कविता)

लिख दिया तुम्हारा भाग्य समय ने
उसी पुरानी क़लम पुराने शब्द-अर्थ से।
उसी पुराने हास-रुदन, जीवन-बंधन में,
उन्हीं पुराने केयूरों में
बँधा हुआ है नया स्वस्थ मन
नई उमंगें, नव आशाएँ
नए स्नेह, उल्लास सृष्टि के संवेदन के।
उन्हीं जीर्ण-जर्जर वस्त्रों में नए आपको ढाँक न पाती।
तुम अभिनव विंशति शताब्दी की
जागृत नारी
जिसकी साड़ी के अंचल में
बँधा हुआ है वही पुराना पाप-पंक
अविजेय पुरुष का।
नव जीवन के भिनसारे में
इस मैली सज्जा में तुमको
हुई नई अनुभूति जगत की।
बड़े वेग से आज समय की नदी गिर रही
नव जीवन की आग तिर रही।
तुम इसमें हो स्वयं समर्पित बही जा रही।
मैं नवीन आलोक बँधा हूँ तुमसे
उसी पुरानी क्षुद्र गाँठ में
जीवन का संदेश, भार बन इस यात्रा का।


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