साहित्य रचना : साहित्य का समृद्ध कोष
संकलित रचनाएँ : 3549
कोलकाता, पश्चिम बंगाल
1957
दर्द जो जिस्म की तहों में बिखरा है उसे रातें गुज़ारने की आदत हो गई है रात की मक्खियाँ रात की धूल नाक कान में से घुस जिस्म की सैर करती है पास से अनजान पथिक गुज़रते हैं उनके पैरों की आवाज़ सदियों तक मस्तिष्क की शिराओं में गूँजती है उससे पहले जब रातें बनी थीं ये आवाज़ें गूँजती होंगी उससे भी पहले से भूखी रातों की आदत पड़ी होगी।
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