धूप की भाषा-सी
खिड़की में मत खड़ी होओ प्रिया!
शॉल-सा
कंधों पर पड़ा यह फाल्गुन
चैत्र-सा तपने लगेगा!
केश सुखा लेने के बाद
ढीला जूड़ा बना
तुम तो लौट जाओगी,
परंतु तुम्हें क्या पता, कि
तुम—
इस गवाक्ष आकाश और
बालुकणों जैसे रिसते
इस नि:शब्द समय से कहीं अधिक
मुझमें एक मर्म
एक प्रसंग बन कर लिखी जा चुकी हो
प्रिया!
इस प्रकार लिखा जाना ही पुरालेख होता है
हवा, तुम्हारा आँचल
मुझमें मलमली भाव से टाँक गई है
जैसे कि पहली बार
मेरे आकाश को मंदाकिनी मिली हो
भले ही अब यहाँ कुछ भी न हो
फिर भी
तुम्हारी वह चीनांशुक-पताका
कैसी आकुल पुकार-सी लगती है
जैसे कि उस पुकार पर जाना
इतिहास में जाना है—
जहाँ प्रत्येक पत्थर पर
अधूरे पात्र
और आकुल घटनाएँ
अपनी भाषा की तलाश में कब से थरथरा रही हैं
इससे पूर्व, कि
यह उजाड़ रूपमती महल लगे
समेट लो अपनी यह वैभव-मुद्रा
इसलिए धूप की भाषा-सी
खिड़की में मत खड़ी होओ प्रिया!
इतिहास में जाकर फिर लौटना नहीं होता!
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