धरती का शृंगार मिटा है (कविता)

धधक उठी है ज्वालित धरती,
जल थल अम्बर धधक उठा है।
अंगारों की विष बूँदों से,
प्रणय काल भी भभक उठा है।

सूख गए हैं तृण-तृण सारे,
दिग दिगंत बेहाल हुए हैं।
सूखे वृक्ष, धरा सूखी है,
पुष्प स्वयं के काल हुए हैं।

मानव का निज ही दृष्टि से,
कर्तव्यों का सार कटा है।
आज कलम ने यही लिखा है,
धरती का शृंगार मिटा है।

सरिताएँ भी सूख गई हैं,
मानव के दोहन के आगे।
स्वयं कूप और सरिताएँ भी
मेघों से जल को हैं माँगें।

तरसे सूखे बदन सभी के,
भूखे पेट गुहार लगाते।
गर्मी की तृष्णा के आगे,
सबके सिर भी झुक हैं जाते।

इस प्रचण्ड विध्वंश के आगे,
मानव का विश्वास घटा है।
आज कलम ने यही लिखा है,
धरती का शृंगार मिटा है।


लेखन तिथि : 5 अप्रैल, 2024
यह पृष्ठ 443 बार देखा गया है
×

अगली रचना

हे! मृदु मलयानिल अनुभूति


पिछली रचना

मैं चिर निर्वासित दीपक हूँ
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें