दीवार पर धूप
शाम तक,
मेरे कमरे की दीवार पर,
टिकी रहती हे,
रोज़ की,
एक सी धूप।
न दीवार को भेदती,
न दीवार में समाती,
और न दीवार पर तैरती,
क्योंकि अगर तैरती,
तो दीवार का पानीपन,
उसके तलवे पर चिपक जाता।
तो क्या वह,
सिर्फ़ दीवार पर टहलने आई है,
सुबह से शाम तक,
एक तरफ़ से दूसरी तरफ़,
कमर के पीछे हाथ बाँधे।
क्या,
सिर्फ़ इतना-सा कारण?
टहलने,
चुप कमरे की सपाट दीवार पर...।
पर तभी लगा,
अगर न हों—
दीवार, कमरा, मैं...,
धूप तब भी होगी,
बेझिझक,
इन सबके पार वाली चीज़ पर।
उसने कितनी सफ़ाई से,
फैलाया है,
यह भ्रम कि वह,
करोड़ों मील दूर सूरज से,
यहाँ तक,
पेड़ के पत्तों से दुबककर,
खिड़की से अपने को खींचकर,
खिड़की के काँच से लड़कर,
मेरे कमरे की
दीवार के लिए आई है।

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