दीन (कविता)

सह जाते हो
उत्पीड़न की क्रीड़ा सदा निरंकुश नग्न,
हृदय तुम्हारा दुर्बल होता भग्न,
अंतिम आशा के कानों में
स्पंदित हम-सबके प्राणों में
अपने उर की तप्त व्यथाएँ,
क्षीण कंठ की करुण कथाएँ
कह जाते हो
और जगत् की ओर ताककर
दुःख, हृदय का क्षोभ त्यागकर,
सह जाते हो।
कह जाते हो—
"यहाँ कभी मत आना,
उत्पीड़न का राज्य, दु:ख ही दु:ख
यहाँ है सदा उठाना,
क्रूर यहाँ पर कहलाता है शूर,
और हृदय का शूर सदा ही दुर्बल क्रूर;
स्वार्थ सदा ही रहता है परार्थ से दूर,
यहाँ परार्थ वही, जो रहे
स्वार्थ से ही भरपूर:
जगत् की निद्रा, है जागरण,
और जागरण, जगत् का—इस संसृति का
अंत—विराम—मरण।
अविराम घात—आघात,
आह! उत्पात्!
यही जग-जीवन के दिन-रात।
यही मेरा, इनका, उनका, सबका स्पंदन,
हास्य से मिला हुआ क्रंदन।
यही मेरा, इनका, उनका, सबका जीवन,
दिवस का किरणोज्जवल उत्थान,
रात्रि की सुप्ति, पतन;
दिवस की कर्म-कुटिल तम भ्रांति,
रात्रि का मोह, स्वप्न भी भ्रांति,
सदा अशांति!"


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स्रोत :
पुस्तक : निराला संचयिता
पृष्ठ संख्या : 51
सम्पादक : रमेशचंद्र शाह
प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
संस्करण : 2010
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