दरवाज़े (कविता)

खोलना, बंद करना;
सारे-सारे दिन,
सारी-सारी रात;
और करने को क्या है
हमारे पास।
सिर्फ़ दरवाज़े मिले हैं
खोल लिए तो बंद,
बंद किए तो खुले।

छह हज़ार साल बुड्ढा
दर्प अपना ओज।
चाँद को फोड़े हमारा हम।
आकाश और पाताल भेदी हम।
खोलते, बंद करते रहे

कभी ख़ुद को कभी तुम को।
और कुछ नहीं तो
द्वार से बिंध-बिंध गए।
बंद और खुल कर रह गए हम।


रचनाकार : इब्बार रब्बी
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