डगमगाते क़दम (कविता)

मैने डगमगाते क़दमों को देखा है,
उन बूढ़ी हड्डियों 
को लाठी का सहारा लेते देखा है।

पाल-पोसकर बड़ा किया
जिस औलाद को उस औलाद के हाथो
उनको घर से निकालते देखा है।

इसे कर्मो का फल कहूँ
या उसकी बुरी संगत का असर?
उम्मीदों के ऐसे मज़बूत बाँध को टूटते देखा है।

सही से उनके दर्द को
महसूस भी ना कर पाया था 
कि उनकी आँख से आँसू निकलते देखा है।

जिन हाथों ने कभी उन्हें चलना सिखाया,
उन्हीं हाथों को उनके सामने फैलाते देखा है।

रोटी के जिस निवाले को
उन्होंने ख़ुद न खाकर उनको खिलाया,
आज उस रोटी 
के एक निवाले के लिए तरसते देखा है।

लगता है उनकी ज़िंदगी 
का सफ़र बस कुछ दिनों का है,
फिर ऐ दो जहाँ के मालिक 
उनको तुझसे मौत माँगते देखा है।

मैंने डगमगाते क़दमों को देखा है।


लेखन तिथि : 12 जून, 2019
यह पृष्ठ 309 बार देखा गया है
×

अगली रचना

वह तो झाँसी वाली रानी थी


पिछली रचना

रिश्तों के मोल घट गए
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें