चूल्हों की दुनिया (कविता)

हम चूल्हों की दुनिया से आए थे
जहाँ चूल्हों के लिए आग थी
आग के लिए लकड़ी थी
लकड़ी के लिए पेड़ थे
पेड़ों के लिए जंगल था
जंगलों के लिए पंछी थे
और पंछियों के लिए माँदल थे
पूरा परिवार था
चूल्हों की दुनिया में

चूल्हों का बँट जाना
परिवार का बँट जाना था
लोगों का नहीं
चूल्हों की महक
पड़ोसियों के घर
आ-जा सकती थी
लोग सहज ही जानते थे
चूल्हों की बात
और इसके लिए
मंदिर-मस्जिद या, कहीं भी
चोंगा से बात फैलाने पर
बात नहीं बिगड़ती थी
चूल्हों की बात पर
लोगों के मुँह में
पानी भर जाता था
या लोग नाक सिकोड़ते थे
लेकिन इससे कभी
किसी के देवता नाराज़ नहीं हुए

चूल्हों की बात पर ही
लोग सड़कों पर उतरते थे
जुलूस की शक्ल में
गोलियाँ चलती थीं
कारख़ानों सें चिमनियों की जगह
मज़दूर आसमान भेदते थे
खेतों से किसान
लोकगीतों से धार देते थे
अपने ग़ुस्से को
और जिनके चूल्हों को
अछूत कहा गया
उनके चूल्हों में ही
सबसे ज़्यादा सपने खौलते रहे हैं
चूल्हों की दुनिया में सबके लिए
एक समान बात थी—स्वाद और ताप

किसी बीते में नहीं है यह दुनिया
किसी दूसरे के हाथ में नहीं है इसकी चाभी
यह हमारे ही अंदर है
जो केवल तनी हुई बंद मुट्ठियों से खुलती है।


रचनाकार : अनुज लुगुन
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