छप रहे हैं इतने क़िस्से रोज़ भ्रष्टाचार के (ग़ज़ल)

छप रहे हैं इतने क़िस्से रोज़ भ्रष्टाचार के,
हाशिये तक पर नहीं हैं गीत अब सिंगार के।

ख़ून की होली की ख़बरें सुर्ख़ हैं इतनी यहाँ,
रँग भी उड़ने लगे हैं रँग के त्यौहार के।

धमकियों की बोलियों का बोलबाला यूँ हुआ,
हो गए हैं बोल गुम अब मान के मनुहार के।

तेजाब की बारिस की चर्चा गर्म है कुछ इस क़दर,
कौन संदेशा सुने अब मेघ के मल्हार के।

छ्प रही है हर नदी पर बाँध बनने की ख़बर,
कौन अब छेड़े तराने धार के मँझधार के।

मज़हबी तहरीर का ऐसा छपा कुछ तर्जुमा,
जो सबक़ थे प्यार के, हैं अब सबब तकरार के।

बाख़बर अख़बार से हम, इस ख़बर से बेख़बर,
ज़िंदगी होती नहीं है, चंद सफे अख़बार के।

कब तलक चर्चा चलेगी, रात की, अँधियार की,
अब तो कुछ नगमे सुनाओ भोर के, उजियार के।

नफ़रतों के शहर में कोई गली ऐसी तो हो,
जल रहे हों दीप जिसमें आदमी के प्यार के।

हर तरफ़ है शोर फिर भी आदमी को है यक़ीं,
स्वर नहीं मद्धम पड़े हैं पायली झंकार के।


लेखन तिथि : अक्टूबर, 1996
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