छाया मत छूना (कविता)

छाया मत छूना
मन, होगा दु:ख दूना।
जीवन में हैं सुरंग सुधियाँ सुहावनी
छवियों की चित्र-गंध फैली मनभावनी :
तन-सुगंध शेष रही, बीत गई यामिनी,
कुंतल के फूलों की याद बनी चाँदनी।
भूली-सी एक छुअन बनता हर जीवित क्षण—
छाया मत छूना
मन, होगा दु:ख दूना।

यश है या न वैभव है, मान है न सरमाया;
जितना ही दौड़ा तू उतना ही भरमाया।
प्रभुता का शरण-बिंब केवल मृगतृष्णा है,
हर चंद्रिका में छिपी एक रात कृष्णा है
जो है यथार्थ कठिन उसका तू कर पूजन—
छाया मत छूना।
मन, होगा दु:ख दूना।

दुविधा-हत साहस है, दिखता है पंथ नहीं,
देह सुखी हो पर मन के दु:ख का अंत नहीं।
दु:ख है न चाँद खिला शरद-रात आने पर,
क्या हुआ जो खिला फूल रस-वसंत जाने पर?
जो न मिला भूल भुले कल तू भविष्य वरण,
छाया मत छूना।
मन, होगा दु:ख दूना।


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