चाय (कविता)

वह कई मगों वाली चाय का दिन था
ज़ाहिर है
बुरी तरह भीग गया था
किले से उतर कर आया
बरसात का पानी भी चाय के रंग का था
मानो सलेटी के टली से छलक गई हो
पूरी भरी चाय

सलेटीपन की बहुतायत से
मैं उदास होने ही जा रही थी
कि चाय का ख़याल आया
सब कुछ ठीक हो गया
किसी सामूहिक हमाम-सा गुनगुना
नग्नता का भूरा रंग
मेरी रग-रग में उतर गया

चाय की तरह तो
एक लड़की कितनी तुर्श और कड़क हो सकती है
यह तुम जान ही नहीं सकते
जब तक तुम उसे ठीक से खौला न लो

मुझे सफ़ेद कपड़ों का शौक़ है
साथ ही चाय का भी
तुम्हें अक्सर मुझे चौंकाने का शौक़ है
मुझे घबरा कर छलका देने का
चाय एक भूरी तरल चेतना है
जो अक्सर बेख़याली में छलक जाती है
नए सफ़ेद दिनों पर।


यह पृष्ठ 461 बार देखा गया है
×

अगली रचना

योगमाया


पिछली रचना

क्लियोपैट्रा
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें