बोलो रानी क्या नाम करूँ?
क्या गोपन-गोपन नाद सुनूँ?
या जनम-जनम बदनाम करूँ?
किरणों की सुर्ख़ अलगनी पर
जिस दिन तुम टाँग गई थीं दिन,
उस दिन से आँखों का सूरज,
रातों में कभी नहीं बदला,
आँगन में बिछे हुए मौसम
और उसकी गर्म साज़िशों से,
अंबर पिघला, तारे पिघले
ये सपना कभी नहीं पिघला
अब तुम बोलो इस क़िस्से में
क्या ख़ास रखूँ, क्या आम करूँ?
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