बिंदी (कविता)

ग़ुसलख़ाने में लगी है
पता नहीं कब से?
कौन भूल गई,
नहाते-नहाते—
साबुन का झाग
आँखों से पोंछती
माथे से छुटाकर
लगा गई
घर के माथे यह चिराग़।
सूने आकाश पर,
छोटा-सा ठंडा सूरज।

तुम वहाँ नहा रही होगी,
साबुन छुटा रही होगी,
पानी उलीचो गाल पर।
बिंदी यहाँ चमके
घर के रोम-रोम में।

दुनिया की दीवार पर
बिंदी-सा जड़ा
गोल, सपाट, लाल
जीवन का चिह्न।
अपना अवशेष,
मैं संपूर्ण नहीं,
मनुष्य का प्रतीक भर
नहाता स्मृतियों में।

ए मेरी मैं!
कितनी ही कविताएँ लिखूँ
चिट्ठियाँ अनगिन,
ख़बरे रचूँ या रंग दूँ,
पांडुलिपियाँ।
एक बिंदी को ही
समर्पित सारी स्याही
काग़ज़ कारख़ाने
जंगल के जंगल
(जो भी कहीं बचे हों)
सारे के सारे क़लम
करोड़-करोड़ धूमकेतु
अरब-ख़रब चाँद
मैं वारता तुम पर!
ए अज्ञात,
रहस्यमय,
‘बिना’ टिकुली वाली!

एक अनजान
मुझे बाँधती है ज्ञात से
अपरिचय जोड़ता
‘अपने’ से।
पूरब में, पश्चिम में
उत्तर में, दक्खिन में,
जहाँ भी जाता हूँ
हर दिशा को टाइल-सा
टटोलता।
फिर साट देता
हर माथे
हर भौंह के बीच
दिपदिपाता
चटख लाल नक्षत्र!
तुम कहाँ हो?
जिसकी टिकुली है मेरे साथ
वह केशराशि,
उठती-गिरती भौंहें,
गंध व्याकुल नासिका,
फड़फड़ाते होंठ,
बंद पलकें,
थरथराती रोमावली,
झूठे ग़ुस्से की मुस्कान,
आकुल त्राण
तुम कहाँ हो?
ए भरे-पूरे भाल।
किसकी बिंदी हूँ मैं?


रचनाकार : इब्बार रब्बी
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