तुम्हें भ्रम है, कि
ये कविताएँ मेरी हैं;
नहीं, ऐसा नहीं है।
शायद यही हुआ होगा कि
मैंने तुम्हें अपनी भाषा में रखकर देखा होगा
और मुझमें ये कविताएँ
वैसी ही फूट उठी होंगी
जैसे फूल, वृक्ष में प्रस्फुटित हो उठता है।
वस्तुतः तुम्हारी ही नहीं
वरन मनुष्य, प्रकृति, जीवन,
जीवन ही क्या
समस्त सृष्टि की ये छंद हैं।
आज तो नहीं
पर कल तुम अपने को।
निश्चित ही इन कविताओं में वैसे ही पाओगे
जैसे आकाश, नदी या फूल देखते हुए
तुम अपने को उपलब्ध करते हो।
कल इसलिए कहा, कि
कल जब मैं नहीं रहूँगा
और ये कविताएँ प्राकृतिक सत्ता-सी
हवाएँ बनकर तुम्हारे कमरे के पर्दे हिलाएँगी।
या तुम्हारी खिड़की में
प्रातःकाल बनकर
एक दृश्य लगेंगी।
तब निश्चित ही,
न तुम्हें और न कविताओं को ही
मेरा स्मरण रहेगा
इसलिए मुझे भी
उसी कल की प्रतीक्षा है
जब मेरे अनुपस्थित होते ही
ये कविताएँ—
वृक्ष, आकाश ही नहीं।
स्कूल जाती तुम्हारी बेटी बन जाएगी।
या और भी
कोई आत्मीय क्षण।

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