साहित्य रचना : साहित्य का समृद्ध कोष
संकलित रचनाएँ : 3561
मुम्बई, महाराष्ट्र
1981
मर गया रामू जीवन भर क़र्ज़ा चुकाते-चुकाते पर चुका नहीं पाया। कभी आधा सेर मज़दूरी कभी डाँट पेट की आग में फिर उसका बेटा... बँधुआ फिर उसका... सदियों से चल रहा है। ईंट भट्ठों पर खदानों में खेत खलिहान बारी-बगीचा कहाँ नहीं हो रहा है शोषण? शारीरिक मानसिक जो कुछ बचा जाति सूचक गाली देकर सामाजिक शोषण, कब मुक्त होगा बँधुआ मज़दूर?
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