बहुत दूर तक,
देखता हूॅं उस मानव को।
जो बुन रहा अपनी मायाजाल।
उसमें फँसना नहीं चाहता,
फाँसना चाहता है।
अपने पास रहने वाले लोगों को।
कोई प्रतिस्पर्धा नहीं, कोई प्रतिशोध नहीं
महत् कार्य है उसका।
जो निरंतर किए जा रहा है।
शायद, उसको भान नहीं!
गिर सकता है उसी खंदक में।
मिटा सकता है अपना अस्तित्व।
फिर भी वर्षों से लगा है इस कार्य में,
एकदिशीय भाव से।
कई जन शिकायत कर चुके
अभिव्यक्त कर चुके अपनी पीड़ा
उस वट वृक्ष को
जिसकी छाया में दोनों पल रहे हैं।
पर, कोई प्रतिक्रिया नहीं।
कोई गतिशीलता नहीं।
सबको विदित है–
पर! किसी को ख़बर नहीं।
वह नर नहीं, नर दैत्य है!
वल्मीकि भी कह सकते हैं।
जो वट वृक्ष के मूल में
कर रहा है छिद्र।
वट बीज के अंकुरण से ही।
बाग़वान भी तो कुछ नहीं कहता,
खोखला किए जाने पर उस वट वृक्ष को।
शायद! सम्मोहित कर लिया है,
वह नर दैत्य।
वट वृक्ष को या उस बाग़वान को।

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