बालहठ (कविता)

साँझ की वेला में पहाड़ी के
नीचे घास की बिछावन
में लेटकर वह
देखती निर्निमेंष
सूरज की भावभंगिमा को
कौतुहलता वश...

सहसा सूरज उसके माथे
पर बैठ गया सुनहरा कर दिया
उसके रुख़सारों को...
झट से उसने सकल सूरज
को समेट लिया...
और अब वह...!!

सूरज को गेंद बनाकर
खेल रही थी कभी इस हथेली पर
कभी उस हथेली पर नचाकर
यह क्या नन्हा शिशु सा कब गोद
में जाकर लेट गया सूरज उसकी...
सारा ममत्व उसने उड़ेल दिया
सूरज की बलाएँ लेकर।

वह सहला रही थी सूरज को
बालों में मुलायम ऊँगलियाँ
फेर रही थी उसके
चेष्टा कर रही थी सूरज
को सुलाने की मगर

चपल चंचल सा सूरज
पेड़ों के झुरमुटों के पीछे
लुका-छिपी खेलने लगा
वह दौड़ पड़ी विकलतावश
उस नन्हें शिशु के पीछे

मगर यह क्या थका-थका
सा यह नन्हा शिशु पीछे
से कमर में हाथ डाले
ऊँघ रहा था उसके
लाल टोपी पहने।

वह मंद-मंद मुस्कुराई
ओढ़ा रही थी उसे काली
स्याह रात की चाँद-सितारे से
कशीदेकारी की हुई रजाई
पहना रही थी
दस्ताने भेड़ की ऊन के।

बर्फ़ जैसे ठंडे पाँव में
और दोनों हाथों में
घास-फूस इकट्ठा करक
अलाव भी जलाया
ताबीश के लिए।

मगर हाय रे...!! बालहठ
वह हठी शिशु हाथ छुड़ाकर
उस मृदुला का वापस पहाड़ी
पर जाकर बैठ गया...

वह हतप्रभ सी झाँकने लगी
उस निर्मोही सूरज की आँखों में
वह अब नन्हा सूरज नहीं
संजीदा सी हो गई थी उसकी भावभंगिमा
आक्रोषित बूढा सा सूरज लग रहा था
जिसके चेहरे पर चिंता की गोल-गोल
लाल-सफ़ेद आकृतियाँ परिलक्षित हो रही थीं
और उम्र के इस पड़ाव पर
वह डूबने की तैयारी
कर रहा था।


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