युग हुए संघर्ष करते
वर्ष को नव वर्ष करते
और कब तक हम प्रतीक्षारत रहें?
धैर्य की अन्धी गुफ़ा में
प्रतिध्वनित हो
लौट आईं
कल्पवृक्षी प्रार्थनाएँ,
श्वेत-वसना राज सत्ता
के महल में
गुम हुईं
जन्मों-जली सम्भावनाएँ
अब निराशा के नगर में
पाशविक अन्धियार-घर में
और कब तक दीप शरणागत रहें?
मुठ्ठियाँ भींचे हुए
झण्डे उठाए
भीड़ बनकर रह गए हम
राजपथ की,
रक्त से बुझती मशालों
को जलाकर,
आहटें लेते रहे हम
सूर्य-रथ की
थक गए नारे लगाते
व्यर्थ ही ताली बजाते
और कब तक स्वप्न क्षत-विक्षत रहें?
हारकर पहुँचे
इसी परिणाम पर हम,
धर्म कोई भी
न रोटी से बड़ा है,
काव्य-सर्जन हो
कि भीषण युद्ध कोई
आदमी हर बार
ख़ुद से ही लड़ा है
देह में पारा मचलता
पर न कोई बाण चलता
और कब तक धनुर्धर जड़वन्त रहें?
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