अजीब मन: स्तिथि में हूँ आजकल!
धैर्य टूटता जा रहा आत्मविश्वास का;
लक्ष्य, विषम परिस्थितियों से हो रहा धूमिल;
अंतःकरण घोर निराशा से आबध्द;
विवेक क्षण प्रतिक्षण शून्यता के तरफ़ प्रवृत्त;
एक अज्ञात आशंसा से भयभीत;
अनमनस्यक सा;
सोचता हूँ, कि
कितने सपनें, कितनी उम्मीदें, कितनी आकांक्षाएँ
लगी है मेरे साथ।
गर पूरा न कर सका तो?
तो सारी अपेक्षाएँ;
काँच के टुकड़ों सा टूटकर;
सबके मानस पे छोड़ जाएँगी एक घाव।
जो होगा;
असाध्य, अमिट, अशेष।
आज तक का कोई गौरवशाली अतीत नहीं;
जिस पर गर्व किया जा सके।
स्मरण रखा जा सके।
मुझे,
हाँ मुझे ही!
इन सब भारों से दबता जा रहा हूँ;
घोर निराशा के गर्त में।
पहले परिजनों की झिड़की,
उत्पन्न करती थी मेरे रोष को।
पर!
आज उनका उमड़ता स्नेह,
भार मालूम पड़ता है मेरे अंत:स्थल पर।
ऐसा नहीं कि
विमुख हूँ या कर्तव्यच्युत,
अपने कर्तव्य बोध से।
सदैव मेरा लक्ष्य ही मेरे चक्षुओं के समक्ष,
रहा एक सीध रेखा में।
अनवरत...
तथापि, परिस्थितियाँ;
मेरे विचारों की गति को लताड़,
निर्बाध बढ़ती जा रही,
पाँव रख, मेरे वक्षस्थल पर।
मेरी भी कुछ कामनाएँ हैं;
सपनें हैं,
जिन्हें पूरा करना चाहता हूँ।
एक कीर्ति स्थापित करना चाहता हूँ; जो
पीढ़ी-दर-पीढ़ी सजीव रख सके मेरी स्मृतियों को।
खरा उतरना चाहता हूँ;
अपने शुभेक्षुओं के अपेक्षाओं पर।
जो मुझमें देखना चाहते हैं सदियों से।
जिसकी आस सुनहरे-स्वप्निल-सी,
अभिसिंचित रही उनकी आँखों में।
तत्पश्चात ही,
मेरी पीड़ा, मेरा अन्तर्द्वंद
समाप्त होगा
पूर्णतः।

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।
सहयोग कीजिएप्रबंधन 1I.T. एवं Ond TechSol द्वारा
रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें
