अंधेरे, पनाह दो (कविता)

एक ही जन्म में शिद्द्त से करो मोहब्बत,
सातों जन्म साथ की मत माँगों सोहबत।

बड़ी बेरुखी से गर उसने दिल तोड़ दिया,
दिल कहता हैं, अच्छा हुआ, छोड़ दिया।

बेदर्दी है बहुत, पता हैं फिर भी उदास हूँ,
बज़्म में साक़ी संग पी रहा मैं देवदास हूँ।

मेरी शेर ओ शाइरी से ख़ुश हो जाती थी,
और सुनाओ कहकर रातभर जगाती थी।

अंजुमभरी रात में चाँद को इज़हार करो,
अब्र में तम घना, सुबह का इंतज़ार करो।

उन रुख़सारों पर जब शाम ठहर जाती हैं,
मुस्कराहट उत्तर से दक्षिण फैल जाती है।

गर हो विरही तो पुनः बन जाओ मुसाफ़िर,
बहुत हैं तुम्हारें जैसे इस दुनिया में क़ाफ़िर।

अर्ध रात्रि में तारों को डूबने की सलाह दो,
कहो, उल्लुओं आओ, ओ अंधेरे, पनाह दो।


लेखन तिथि : 29 जनवरी 2025
यह पृष्ठ 490 बार देखा गया है
×

अगली रचना

फिरती घिरती छाया


पिछली रचना

वक़्त ख़ूब लगता हैं
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें