ऐसी तड़प अता हो के दुनिया मिसाल दे (ग़ज़ल)

ऐसी तड़प अता हो के दुनिया मिसाल दे,
इक मौज-ए-तह-नशीं हूँ मुझे भी उछाल दे।

बे-चेहरगी की भीड़ में गुम है मिरा वजूद,
मैं ख़ुद को ढूँढता हूँ मुझे ख़द-ओ-ख़ाल दे।

हर लहज़ा बनते टूटते रिश्ते न हों जहाँ,
पिछली रफ़ाक़तों के वही माह ओ साल दे।

कश्कोल-ए-ज़ात ले के न जाऊँ मैं दर-ब-दर,
हाजत-रवा हो सब का वो दस्त-ए-सवाल दे।

इस दश्त-ए-पुर-सराब में भटकूँ कहाँ कहाँ,
ज़ंजीर-ए-आगही मिरे पैरों में डाल दे।

'मंज़ूर' का ये ज़र्फ़ कि कुछ माँगता नहीं,
मर्ज़ी तिरी जो चाहे उसे ज़ुल-जलाल दे।


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