क्या पता लोहे में जीवन हो
पत्थर हों वनस्पति
क्या पता कल हम समझ सकें जल और वायु का व्यवहार
निश्चय और निष्कर्ष के बीच जो जगह है
वहाँ से आती अज्ञात की आवाज़
हो सके बातचीत झाड़ियों और पेड़ों से
बढ़ जाए इतनी रौशनी
शब्द हो
तो कोई सुनता हो
चादर की सलवटों में सृष्टि की लिपियाँ उजागर हों
क्या पता कविता न रह जाए आज जैसी
आज जहाँ है वहाँ बस जाएँ बस्तियाँ
और वह निकल जाए अगली भाषाओं की तलाश में।

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