आख़िरी साँसों तक
पूर्ण नहीं होता
जीवन का उपन्यास।
कुछ शेष रह जाती हैं,
प्रेम कविताएँ;
छंद नहीं बनते उस क्षण के,
टूट जाती हैं महत्वाकांक्षाएँ।
अधूरी अतृप्त इच्छाएँ,
कुरेदती है उन घावों को;
जिस पर मरहम लगा भी
तो सुई की नोक से।
कुछ तस्वीरें अधूरी रह गईं–
बेरंग बेनाम, उदास।
लकीरें भी भर न पाई
उस रिक्तता को।
जिसका रेखाचित्र
तैयार किया था तुमने ही।
स्वार्थ भरे इस जग में,
कुछ भी तो अपना नहीं है;
जिसे अपना कहा जा सके।
रिश्तों की डोर भी
अवलंबित है इन्हीं पर।
संसार में सब कुछ तो है,
ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, धन लिप्सा, ख़ुशामद
और भी बहुत कुछ–
चल भी रहा जग द्रुतगति से;
इसी सहज भाव से।
गर नहीं है तो बस!
सच्चा प्रेम व
पवित्र रिश्तों की डोर।

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