पहले तो सुनने वालों की पलकें झपकीं
जैसे कमोदनी के वन को प्रातः समीर ने छेड़ा हो;
फिर कई-कई कोरों में झलकी तरल चमक
जैसे पुरइन पर तिरती जल की बूँदों को
चूमा हो पहली, लाल-सुनहली किरनों ने :
गूँजता रहा यों गीत अंत का छिड़ा चरण
जिसको सुनते-सुनते सहसा
हर पुतली की बुझ गई जोत,
बुझ जाएँ जैसे डग-दो डग पर
सब के सब टूटे तारे;
हर पलक घिरी; थम गया गीत—
थम जाएँ जैसे सईं-साँझ संज्ञाहत सारे पथ-हारे
वह दर्द नहीं था केवल सुनने वालों का,
मेरा भी था :
मैंने भी जो कुछ कहा-सहा
मैं भी टूटा :
मैंने भी अपने को संज्ञाहत पाया तब :
इसलिए गूँज बुझ गई—अधूरा गीत रहा।

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