बड़ी देर तक
हवा और वृक्ष बतियाते रहे।
हवा की हर बात पर
वृक्ष
पेट पकड़-पकड़ कर हँसता रहा।
और तभी
हवा को ध्यान आया अपनी यात्रा का;
और वह हड़बड़ाते हुए बोली,
—“हटो, तुम हमेशा देर करा देते हो।”
अपने धूप के वस्त्र व्यवस्थित करते हुए
वृक्ष बोला,
—“मैं देर करा देता हूँ या तुम्हीं...”
—“अच्छा, अब रहने दो,
तुम्हें तो कहीं आना-जाना है नहीं।”
हवा को जाते देख
वृक्ष उदास हो गया।
हवा—
इस उदासी को समझ तो ले गई।
पर केवल इतना ही बोली,
—“अच्छा अब मुँह मत लटकाओ
मैं तुम्हारे इन बाल-गोपालों को लिए जा रही हूँ
और हुआ तो लौटते में...
वृक्ष ने देखा, कि
सामने के मैदान में
हवा को घेरे पत्ते।
चैत्र-मेला घूमने के उत्साह में
कैसे किलकारियाँ मारते चले जा रहे हैं।
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