सभी आवाज़ें मिलकर—गड्डमगड्ड सुबक रही हैं...
मेरे सिरहाने, टप-टप अकेली एक बूँद टपक रही है।
आँखों में आँखें नहीं हैं, दर्पण में
दर्पण नहीं है, चुप में चुप नहीं है,
फिर भी तुम्हारे लिए आँसू बहते हैं, दर्पण लहकते हैं,
आँधी में कई-कई स्वर मेरे होंठों में बहते हैं।
मुँह अँधेरे ही तुम मेरे पहलू में करवट बदल रही हो
तुम मेरी बाँहों में सरक रही हो, क़दम-क़दम पर
अपना संगीत छोड़, दरवाज़ा लाँघ रही हो...
निर्णय ले रही हो—लौट रही हो—
सहसा लिपट कर सिसक रही हो।
आँखों में आँखें नहीं हैं
फिर भी मैं देख रहा हूँ—तुम्हें नखशिख।
दर्पण में दर्पण, चुप में
चुप नहीं है।
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