आँधी (कविता)

आँधी आती है
जंगल के पेड़ चिपक जाते हैं एक-दूसरे से
अपने आपको टूटने से बचते-बचाते हुए

वे अपनी डालियों के हाथ हिलाते हैं
हिम्मत बँधाते हैं एक-दूसरे को
पौधों को अपनी बाँहों में छुपा लेते हैं

कुछ ऐसे पेड़ भी होते हैं
जिनका दूर तक कोई क़रीबी नहीं होता
कवियों की तरह
अलग-थलग पड़े अपने कुनबे से
वे अकेले ही आँधी के थपेड़े खाते हैं
सहते हैं सहने की सब सीमाओं तक
लेकिन आख़िर टूट जाते हैं

जीवन की ऐसी ही किसी आँधी में
तुमसे बिछुड़ जाने के बाद
जैसे मेरी छाती टूटती है


रचनाकार : विजय राही
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